क्या दुर्जनों में परमात्मा का दर्शन हो सक्ता है?
गोस्वामी तुलसीदासजी ने तो रामचरितमानसमें सज्जनों की वंदना करी है तो दुर्जनों की भी वन्दना करी है | दुर्जनोंको विभिन्न उपमाएँ देते हुए कहा की उन्हें पृथुके समान समज करके मैं उनकी वन्दना करता हूँ | फिर कहते है कि जिस तरह से पृथु भगवानने हजार कान माँगे थे कि मैं भगवानके गुणोंको सुन पाऊ, इन दुर्जनों के पास भी हजार कान होते हैं क्योंकि वो दूसरोंकी निंदा सुननेमें ज्यादा रूची रखते है | तो जब भगवन्मय हम जानते है सृष्टिको तो निश्चितरूपसे चाहे सज्जन हो चाहे दुर्जन हो सभी वन्दनीय ही है |
गीतामें भी है-
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः
सामने शेर आ जाय तो उसमें भी भगवान् ही है | लेकिन वहाँ जाकर दण्डवत् करने की जरुरत नहीं है | वहाँ व्यवहारमें किस तरहसे करना चाहिए वो हमें समजना हैं | व्यवहार जगतमें विवेक की आवश्यकता पड़ती है | है तो सबकुछ भगवन्मय | अब देखो सोने के ही सब गहने है, लेकिन गलेका हार पाँवमें थोड़ी बाँधोगे ? उसको गलेमें ही पहनोगे | और जो पायजेब है, उसको आप गलेमें थोड़ी बाँधोगे ? वो बात हो गई व्यवहारवाली |जिसका जहाँ स्थान है उस हिसाबसे विवेकपूर्वक हमें व्यवहार करना चाहिए |
सियाराम मय सब जग जानी करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी
देखना तो सबमें परमात्माको ही है | क्योंकि परमात्मा ही है, यही हकीकत है |
सर्वं खलु इदं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन |
बाकि जितने आकार-विकार-प्रकार प्रतीत होते है, वो सब इस मायाके चलते है | बाकि जो अद्वितीय वस्तु है, वो एक ही है और वह परब्रह्म परमात्मा है | उसीको सबमें देखना है | लेकिन जब हम व्यवहार कालमें आते है तो विवेकपूर्वक हमें व्यवहार करना चाहिए ||