How can we see God within us? हम भगवानको अपने अन्दर कैसे देख सकते हैं?

How can we see God within us?

God is within all and outside of all.

Antarbahiravasthita

There is no place without God, but everything is within God. It is not possible that anything can be outside of God. No existence is possible other than God or separate from God.

Vedas say: Purua eveda sarvam.

So, everything is within God. Nothing exists outside of God. In addition, God is present within us and outside of us.

So how do we see God within us?

In the 2nd canto in Shrimad Bhagavat the first two chapters, are on meditation (dhyān prakara). In these chapters, the method for sthūla dhyān (meditation of that which has manifest, physical existence) and sūkma dhyān (meditation of the subtle, ethereal) have been explained.

So, whatever exists is the form of God, this notion is sthūla dhyān.

Jaa cetan jaga jīva jata sakala Rām maya jāni

Seeing God in all is not a big thing. Seeing gold in a gold necklace, gold bangle, gold waist chain or gold earrings, what is so hard in this? In fact, it is all gold. These are different forms of gold. Similarly, what we see are the various forms of God. This understanding from the Vedas, teaching from Guru, when this is firmly embedded in one, naturally, one will see God in all.

In our hearts also,

Kecitsvadehāntarhadayāvakāśe, pradeśamātra purua vasantam                                     SB 2.2.8

Close your eyes and sit calmly. Try to see God within. In the beginning, see and meditate upon Narayan with his four arms as well as his weapons in your heart,

But, as we continue to do that, when we reach a state of having no thoughts, no resolution or choices, then we have won over your mind. Furthermore, we will be in a state of extreme peace and bliss, where we do nothing, we become a witness. At this point, understand that you are close to God.

These are the two ways of seeing God within our self.

हम भगवानको अपने भीतर कैसे देख सकते हैं ?

परमात्मा सबके भीतर भी है और सबके बाहर भी है |

अंतर्बहिरवस्थितम्

परमात्माके सिवाय कोई जगह है ही नहीं, लेकिन सब कुछ परमात्मा के भीतर है | भगवान् से बाहर कुछ भी नहीं और हो नहीं सकता | परमात्मा से अतिरिक्त, परमात्मा से भिन्न कोई अस्तित्व ही संभव नहीं है |

पुरुष एवेदं सर्वम्

ये वेद कहते हैं | परमात्मा के भीतर ही सब है उनके बाहर कुछ भी नहीं | लेकिन हम सबके भीतर भी भगवान् है और बाहर भी है |

भीतर भगवान् को कैसे देखें ? श्रीमद्भागवतमें द्वितीय स्कंध में प्रथम दो अध्याय ध्यान-प्रकरण है | उसमे स्थूल-ध्यान और सूक्ष्म-ध्यान की विधि बताई गई है | ये जो कुछ भी है, ये सब परमात्मा का ही स्वरुप है, ऐसी धारणा करना यह स्थूल-ध्यान हो गया |

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।

सबमें परमात्माको देखना इसमें कोई बड़ी बात नहीं है | सोने का हार में भी सोने को देखो, कंगनमें, करधनी में और कान की बूटी में भी स्वर्ण को देखो | इसमें कौन सी कठिन बात है ? वास्तवमें स्वर्ण ही है सब, स्वर्ण के ही विभिन्न रूप है सब | बस उसी तरह मेरे परमात्मा के ही ये विभिन्न रूप हैं | ये वाली जो वेद-प्रदत्त समज है, गुरुप्रदत्त ये जो शिक्षा है; ये एक बार स्थिर हो जाती है तो स्वाभाविक रूप से सर्वत्र हरि दर्शन होता है | अपने हृदयमें भी:

केचित्स्वदेहान्तर्हृदयावकाशे प्रादेशमात्रं पुरुषं वसन्तम् ।                      (श्रीमद्भागवत:२.२.८)

आँख बंद करके शांतिसे बेठना चाहिए और अपने भीतर भगवान् को देखनेका प्रयत्न करना चाहिए | शुरुआत में हृदयमें भगवान् नारायणका, चतुर्भूज स्वरूपका, उनके आयुधोंका ध्यान करो |

लेकिन ऐसा करते-करते एक विचारशून्य स्थिति हो जाय या संकल्प-विकल्प रहित स्थिति हो जाए तो आप मनके पार हो गए ऐसा समजना चाहिए | तब एक शांति और आनंदपूर्ण स्थिति होती है, जहाँ हम कुछ भी नहीं करते, हम केवल एक साक्षी मात्र बने रहते हैं | वो भी एक जो स्थिति है तो आप समझो कि आप परमात्मा के सन्निकट ही है |

दोनों प्रकारसे अपने हृदयमें इस प्रकार ध्यान करने का भाव है |

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