What is the difference between parā and aparā vidyā परा और अपरा विद्या में अंतर क्या है ?

What is the difference between parā and aparā vidyā? Is aparā vidyā necessary to acquire parā vidyā? How is parā vidyā helpful for mental health illness?

It is said: dve vidye veditavye parā aparā ca.

Meaning, two types of learning must be gained: parā and aparā. Parā vidyā is related to knowledge of the Absolute/ Supreme. However, it is also necessary to learn regarding the necessities required for this body and its nurture as it is the means that we use for our spiritual progress.

Knowledge to earn a living (aparā vidyā) is as important as spiritual knowledge (parā vidyā).

Knowledge and skill used to be categorised into two in the olden days in Gurukul. In the category of knowledge, teachings on life used to be provided whilst in the skill category, how to earn livelihood and behave in this world used to be taught.

We must possess knowledge in both areas, gain both types of learning. We should go to a Guru and serve them. It is also said that that:

Guruśūśruayāvidyā

There are many means to learn. From these, knowledge gained by going to and serving a guru is one way.

How is parā vidyā helpful for mental health illness?

Worrying excessively is a type of mental illness. Worrying too much, thinking more than is necessary, is not healthy mentally. So, what does parā vidyā say? Trust in God. Whatever God does, if you have taken refuge in God, then…

Harii śa te kariyati

It is also said in Putimārga (subdivision of Vaishnavism):

Cintā kāpi na kāryā niveditātmabhii kadāpīti |

Bhagavānapi putistho na kariyati laukiki ca gati ||                                (Navratnam-1)

God never lets any detriment happen to His devotee.

Kaunteya pratijānīhi na me bhakta praaśyati (SBG 9.31)

In Gita, by saying this, God assures His devotees.

Even if a mistake has been made or a sin has been committed, then God says, there is repentance for every sin; there is an opportunity to improve every fault. There is no problem which does not have a solution. Thus, do not grieve, do not worry. At the end, God has said in Gita.

Nāma sankīrtana yasya sarvapāpa praṇāśanam  (SB 12.13. 23)

This has been said at the end of Shrimad Bhagavat.

So, we must trust God’s name more. we must have exceptional trust in the power and capability of liberation by God and his grace.

In summary, the implication of being on the path of devotion is trust in God and the power of God’s name.

Binu bisvās bhakti nahi                  (RCM 7.90).

One who has attained such devotion, parā vidyā, knowledge of spirituality, which is the form of God leads to a state of no desires or worries in one’s life.

Thus, with this trust, let us continue to progress in God’s devotion (parā bhakti) and be rid of mental illness and consequently be healthy physically as well as mentally.

परा और अपरा विद्या में अंतर क्या है ? क्या अपरा विद्या जरुरी है पराविद्या पाने के लिए ? परा विद्या मानसिक रोग में कैसे मदद कर सकती है ?

ऐसा कहा गया है-

द्वे विद्ये वेदितव्ये इतिहस्म यद द्ब्रह्मविदो वदन्ति पराचैवापरा च ।  – मुण्डकोपनिषत् १-१-४

दो विद्याओं को जानना चाहिए – परा और अपरा । परा विद्या परमात्मा, यानि अध्यात्म से सम्बन्धित है । लेकिन आध्यात्मिक विकास हम जिसके माध्यम से करते हैं वो साधन रूप मिला हुआ जो शरीर है, उसके पोषण और शरीर की यात्रा चलती रहे उसके लिए जितनी आवश्यक बातें हैं वो भी सीखना जरुरी है । अतः जीविका की शिक्षा भी उतनी ही आवश्यक है और जीवन की शिक्षा भी जरुरी है ।

विद्या और कला ये दो विभाग रहते थे पुराने समय में भी गुरुकुलों में । विद्याविभाग में जीवन से सम्बंधित शिक्षाप्रदान की जाती थी और कलाविभाग में आजीविका से सम्बन्धित, व्यवहार जगत से सम्बन्धित जिन बातों को सीखना जरुरी है, वो सिखाया जाता था।

तो व्यक्ति को परा और अपरा दोनों विद्याओं को प्राप्त करना चाहिए । आजीविका से सम्बन्धित जो बातें हैं वो सीखना अपराविद्या है, और परमात्मा और अध्यात्मसे सम्बन्धित जो बातें हैं उसको सद्गुरु से समझना ये अतिआवश्यक है । तो इन दोनों विद्याओं का हमें ज्ञान होना चाहिए । दोनों विद्याओं को प्राप्त करना चाहिए ।

और इसलिए हमें गुरुजनों के पास जाकर के उनकी सेवा करके “गुरुशुश्रूषयाविद्या “, विद्याप्राप्ति के कई साधन हैं उसमें ‘गुरुशुश्रूषा से प्राप्तविद्या’ ऐसा भी कहा गया है।

पराविद्या मानसिक रोग में कैसे मदद कर सकती है ?

चिंता को हम मानसिक रोग ही कहेंगे । अतिशय चिन्ता करना, आवश्यकता से ज्यादा सोचना ये भी मानसिक स्वास्थ्य नहीं कहा जाएगा । तो पराविद्या क्या कहती है कि भगवान पे भरोसा रखो । आप यदि परमात्मा के प्रति समर्पित हैं तो “हरिः शं ते करिष्यति ” पुष्टिपरम्परा में भी ये कहते हैं कि–

चिन्ता कापि न कार्या निवेदितात्मभिः कदापीति ।

भगवानपि पुष्टिस्थो न करिष्यति लौकिकिं च गतिम्।।“ – नवरत्नम् -1

 

भगवान अपने भक्त का कभी भी अहित नहीं होने देते ।

कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तःप्रणश्यति।“ (श्रीमद्भगवद्गीता 9.31)

गीता में भी भगवान ये वचन कहकर के अपने भक्तों को आश्वस्त करते हैं । कोई गलती हो गई, कोई पाप हो गया तो भी भगवान कहते हैं हर पाप का प्रायश्चित है । हर गलती को सुधारने का अवकाश है । और कोई समस्या ऐसी नहीं है जिसका समाधान न हो । इसलिए शोक न करो चिन्ता न करो । अंत में गीता में भगवानने ये कहा –

कुल मिलाकर भक्ति के पथ पर चलने का तात्पर्य है – परमात्मा में विश्वास । परमात्मा की नाम शक्ति में विश्वास ।

बिनु बिस्वास भगति नहिं (रामचरितमानस 7.90क)

और ये वाली भक्ति, ये वाली पराविद्या, ये वाली अध्यात्मविद्या जो कि भगवान का ही स्वरुप है – अध्यात्मविद्या विद्यानाम् (श्रीमद्भगवद्गीता 10.32) वो जिसको प्राप्त हो गई तो फिर वो फ़िकर नहीं करता, वो चिंता नहीं करता । फिर न कोई चाह रहती है न कोई चिंता रहती है ।

तो इस भरोसे के साथ, इस विश्वास के साथ भगवान की पराभक्ति में आगे बढ़ते रहें । और वो वाला मानसिकरोग चला गया तो हम तन से और मन से दोनों से स्वस्थ हो सकते हैं ।

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