श्रीपरशुरामजी जयंती
दशावतार में छठे अवतार हैं श्रीपरशुरामजी। कुछ व्यावहारिक संबंधो को जोड़कर कुछ चर्चा करेंगे। जैसा की गीताजी में कहा गया है कि –
“यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
और रामचरितमानस में भी कहा है कि –
जब जब होई धरम के हानि,
बाढहिं असुर अधम अभिमानी।
समाजमें जब जब कोई भी धर्म से च्युत हो तो लोगोंमें धर्म की रक्षा हेतु और लोगोंकी धर्म के प्रति आस्था हो और निष्ठा हो। कथाओ में बारम्बार चर्चा होती है कि धर्म केवल मंदिर और मठमें ही नहीं है किन्तु धर्म सत्पुरुषों के आचरण में आता है।
।।आचारः प्रभावो धर्मः धर्मस्य प्रभुरच्युतः।।
धर्म चर्चा का नहीं चर्या का विषय है | धर्मके प्रति लोगों की निष्ठा बनी रहे ऐसा कुछ करना भी धर्मसंस्थापन है।
परशुरामजी ने क्या किया ?
प्रजा के लिए राजा विष्णुरूप है। जो शास्त्रके अनुसार प्रजा का पालन, पोषण और रक्षण करते हैं। किन्तु वो राजा रक्षक से भक्षक बने और पोषक से शोषक बने और अत्याचार, अनाचार करे तब परशुरामजी आते हैं। परशुरामजी को आवेशावतार माना गया है।
जो ब्राह्मण समाज के मस्तकरूप हैं, जो ज्ञानप्रधान है, जो सतत राजा का मार्गदर्शन करते हैं। जो सत्ता-सम्पत्ति के प्रति आसक्ति नहीं हैं राजा उनका स्तवन और स्तुति करते हैं। वही समाजके ज्ञानी और त्यागी जनों का collective सामूहिक और सक्रिय आक्रोश ही परशुराम है।
जब-जब समाजका वर्ग कर्तव्य पथ पर से धर्मभ्रष्ट होता है तब परशुरामजी अवतार ग्रहण करते हैं।
भगवान परशुराम ने होशपूर्वक रोष दिखाया जिसमें विवेकशून्यता नहीं थी किन्तु विवेकपूर्वक रोष दिखाया था। विश्वसत्ता ही परशुरामजी के रूप में प्रगट हुई है ।
संकलन- ऋषि उत्सवभाई खंभोडजा तथा ऋषि धवलभाई जोशी