What should one do to increase love and trust in Sadguru’s lotus feet? How does one attain satsang and association of saints? गुरु चरणोंमें प्रेम भरोसा कैसे बढे, सत्संग कैसे करें ?

What should one do to increase love and trust in Sadguru’s lotus feet? How does one attain satsang and association of saints? After attaining, how can this be increased? What should we do to attain it regularly and increasingly?

Choosing a guru should not be seen as a ritual. When you are extremely eager to walk on the path of spirituality and you realize the need for the guru after that you should go ahead and take refuge in a Sadguru. That is the right way. Making a guru out of contention is like having a meal without being hungry. Eating without being hungry may not nourish you, but may become the cause of illness. Therefore, to be healthy, eat only when you are very hungry, eat only as much as you are hungry; in fact, eat a little less than that as guided to remain healthier.

The scenario these days is, everybody says without a guru you cannot obtain knowledge. It is said in Ram Charit Manas as well:

Guru binu bhava nidhi tarai na koī, jo biranci Śankar sam hoī. (SRCM 7.92.3)

We must have a guru. So, we choose a guru out of contention, that should not be the case. Only when we are spiritually hungry, then to obtain spiritual guidance, we need a Sadguru. Then, our mind automatically develops faith towards the Sadguru. A person who is lost in a desert understands the importance of one to one and a half litres of water and preserves it carefully. The person understands the value of the water at this time. So, when a person is hungry for spiritual knowledge, one understands the importance of a Guru. Then one is filled with dedication to the Sadguru. To develop spiritual hunger, satsang is needed. Therefore,

Pratham bhagati santan kar sangā dūsari rati mama kathā prasangā” (SRCM 3.34.3)

You gain satsang as a result of the fruition of your good deeds. You either attend satsang by your wish or it might just happen to you accidentally, both are possible. Either a saint comes to you and does satsang or you may meet a saint and do satsang or both of you meet somewhere in between and satsang takes place.

Devarshi Narad came to Dwarka to Vasudev and did satsang, this katha is in the eleventh canto of Bhāgavat. In the third canto, there is a story about Vidurji who went to Maitrayi Rishi’s hermitage at the banks of Ganga and did satsang. There is a story that king Yadu found a hermit sleeping at the bank of Kaveri and did satsang. At the time of Yagya at King Nimi’s place, Nav Yogeshvar came there and did Satsang. Satsang is a part of a Yagya here. Just like the satsang happening between Shri Sutaji and Shaunakadi Rishis at Naimisharanya, which is also part of a Yagya. Shaunakadi rishis are doing a Yagya for a thousand years. The Yagya goes on till noon and after a break, in the remaining time, satsang continues as a part of the Yagya. This means whatever virtuous action you perform, always include satsang as part of it. Vidurji went for a pilgrim and did satsang there. When you carry out Satyanarayan pūja, so after doing the pūja you listen to the Katha for five hours, so that too is satsang but as a part of a fast.

Thus, satsang is very important. The continuity of satsang. Hence, karahi sadā satsang. Spiritual hunger rises from continuous and regular satsang only. Satsang works as an appetizer. That is how the hunger for spiritual knowledge develops. When that hunger is at its peak, then you go to seek the shelter of Sadguru. After that, like I said, just like a person lost in the desert understands the value of water, similarly, a spiritual aspirant understands the value of Sadguru. One develops faith and dedication in Sadguru, takes each word or teachings of Sadguru seriously and solemnly and walks on the path showed by Sadguru.

प्रश्न :- गुरु चरणोंमें प्रेम भरोसा कैसे बढे, सत्संग कैसे करें ?

उत्तर :- गुरु बनाना एक तो कर्मकांड नहीं होना चाहिए | जब तुम्हारे मनमें अध्यात्म पथ पर चलेनेकी उत्कट इच्छा हो, अदम्य इच्छा हो और तब; जब तुम्हें गुरु की जरूरत महसूस हो, तब तुम किसी सद्गुरु की शरण में जाओ ऐसा होना चाहिए |

देखा-देखि गुरु बना लोगे तो बिना भूख वाला भोजन हो जाएगा और बिना भूख वाला भोजन पोषण ही करे ये जरुरी नहीं है, वो रोगका भी जनक हो सकता है | स्वस्थ रहने के लिए जब कडी भूख लगी हो तब ही खाओ, उतना ही खाओ और हो सके तो उससे कम खाओ | ज्यादा स्वस्थ रहने के लिए यह बताते है | आज कल क्या होता है कि जब ये कहते है कि “बिना गुरु के ज्ञान नहीं होता” और रामचरितमानस में भी

गुरु बिन भव निधि तरइ कोई।
जौ बिरंचि संकर सम होई।

ये कहा है | देखा देखी हम गुरु बना लेते है | पूरी आध्यात्मिक भूख लगे तब कोई आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए सद्गुरु की जरुरत पड़ती है और तब अपने आप ऐसे सद्गुरु में अपनी निष्ठा बनती है| रेगिस्तान में जो आदमी भटक गया हो वो अपने पास बचे हुए एक या डेढ़ लिटर पानी को कितना महत्वपूर्ण मानता है और कितना संभालकर रखता है | वो पानी की कीमत समजता है | जब आदमी आध्यात्मिक भूखसे युक्त हो तब उसको पता है की गुरु की क्या महिमा है ! अब गुरु के प्रति निष्ठा से वह युक्त होगा | आध्यात्मिक भूख के लिए “सत्संग” की आवश्यकता है | इसलिए

प्रथम भगति संतन कर संगा |
दूसरी रति मम कथा प्रसंगा ||

तुम्हारे कोई ना कोई सुकृत पुण्यके चलते तुम्हें सत्संग प्राप्त होता है | या तो तुम अपनी इच्छासे सत्संग में जाओ या फिर अकस्मात ही सत्संग प्राप्त हो जाए, ऐसा भी होता है | कोई संत तुम्हारे पास आए और सत्संग हो, तुम संत के पास जाओ और सत्संग हो | कही बीच में मिल जाए और सत्संग हो |

देवर्षि नारद द्वारका आए वसुदेवजी के पास और सत्संग हुआ | ये कथा श्रीमद्भागवतके एकादश स्कंधमें है | तृतीय स्कंध में कथा है ,गंगा के तट पर विदुरजी मैत्रेयजी के आश्रम में गए और वहाँ सत्संग हुआ | राजा यदु ने कावेरी के तट पर नंगधडंग फकीर को देख लिया और वहाँ पर सत्संग हुआ |

इस तरह से अब जैसे राजा निमीके यज्ञमें सत्कर्म चल रहा था और वहाँ नव योगेश्वर पधारें और फिर सत्संग हुआ | वहाँ सत्संग यज्ञांग है | जैसे सूतजी और शौनकादि ऋषियों के बीचमें नैमिषारण्यमें जो सत्संग हो रहा है वो भी यज्ञांग है | शौनकादि ऋषि एक हजार वर्षका यज्ञ ले के बैठे है और मध्याह्न समय तक यज्ञ होता है फिर थोड़ी देर विराम और फिर अपराह्न समयमें, वे यज्ञ के अंग के रूपमें सत्संग करते है | इसका मतलब है की जो भी आप सत्कर्म करो उसके साथ सत्संग को अवश्य जोड़ो | विदुरजी तीर्थ यात्रा के लिए गए है और वहाँ पर सत्संग किया है | आप सत्यनारायणकी पूजा करते हो तो पूजाके बाद आप पांच घंटेकी कथा सुनते हो; वो भी व्रतके अंगके रूपमें सत्संग हो गया | इस तरहसे सत्संग की बड़ी महिमा है | इस लिए…

करही सदा सतसंग

सत्संग के सातत्य से ही वो आध्यात्मिक भूख खुलती है | सत्संग appetizer का काम करता है | जब आध्यात्मिक भूख एकदम तीव्र हो तब कोई ना कोई सद्गुरु की शरणमें आप जाते है | जैसा की मैंने कहा की रेगिस्तान में भटकते हुए आदमी को पानी की कीमत समज में आती है उसी तरह से ऐसे साधक को सद्गुरु की महिमा का ज्ञान होता है, भान होता है, निष्ठा होती है और तब सद्गुरुके एक-एक वचन पर, एक-एक शब्द पर वह पूरी गंभीरता से ध्यान देते हुए उनके बताए मार्ग पर चलता है |

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