Why do we often see Garudji’s form on the bell used during Aarati? घण्टाजी में प्रायः दृश्यमान गरुड़जीकी आकृतिका रहस्य क्या है ?

When we perform Aarati, we often see the is the form of Garudji sculpted on the bell in the hand of the priest. What is the reason behind this?

Garudji can be seen from different point of views. Firstly, Garudji is Śrī Nārāyan’s vehicle and the bell ringing means Garudji is praying. With the uttering of ‘Ghaṇtā sthāya Garuḍāya namaḥ’ we worship the bell and by saying “Ghaṇtānādaṁ prakurvita paścād ghaṇtāṁ prapūjayet” we first check if the bell is one that will ring. By ringing the bell, the environment becomes holy and then we start worshipping it.

Garudji is also considered to be a form of the Vedas. It is said that when Garudji takes flight, then Sāmveda hymns can be heard from its wings. Lord Vishnu, Lord Narayan travels on this very Garudji to reach us. This means, that the Truth, which is approving of the Vedas, is brought to you by the Vedas.

That which you believe in, is not the truth but the truth is what you need to believe. That which we believe is not Dharma; Dharma is what we need to understand and believe. This is a great confusion: do Vedas drive us, or do we want manipulate Vedas according to our wishes and desires? This attempt to manipulate Dharma according to our wishes and this type of desire is Duryodhan’s disposition.

In Mahabharat, on the side of Kauravas we see Dharma in the form of Vidur and Pandavas have Yudhishthira in the form of Dharma. Both are virtuous and both have great love for each other.

Duryodhan wants that because Vidur is being fed by his family, Vidur should talk in terms favourable to him. That is why whenever Vidur says anything which is for the wellbeing of all, Duryodhan does not like it. When Shri Krishna came for conflict resolution, Vidur provided advice to Dhritarashtra which Duryodhan did not like. Duryodhan then insulted Vidurji by saying, “Who called this maiden’s son here, he is fed by us but always prefers the wellness of the Pandavas”. This implies that if we spend some money for virtuous causes then we start expecting that Dharma is driven according to our wishes. No, we should do what Dharma says.

Whatever I do is Dharma, is the disposition of Duryodhan. Duryodhan’s nature includes stubbornness, selfishness and ego. Then he talks about throwing Vidur out. Such is how Dharma is treated on the side of Kauravas whereas in the case of Pandavas all the brothers follow with discipline as Yudhishthir guides and instructs, even in scenarios when they dislike what is asked. At times, all the brothers do not agree to what Yudhisthira is saying, for example in Draupadi’s case. Was it appropriate to gamble her? It was natural for the others to be angry, but Dharma is respected on this side to a great extent. By doing so, at the end Shri Krishna, the embodiment of Truth, sided with the Pandavas. As the Pandavas were driven by Dharma, God stayed with them. In the end the Pandavas won the battle of Mahabharat.

जब हम ठाकुरजीकी आरती करते हैं तब आरती के समय पुजारीजी के हाथमें जो घण्टाजी होते हैं उसमें प्रायः गरुड़जीकी आकृति का रहस्य क्या है ?

गरुड़जी को कई दृष्टि से देखेंगे।  एक तो भगवान् नारायण का वाहन है।  घंटा बज रहा है मतलब गरुड़जी स्तुति कर रहे हैं।  ‘घण्टास्थाय गरुड़ाय नमः’  कहकर हम घण्टाका पूजन करते हैं और ‘घण्टानादं प्रकुर्वीत पश्चाद् घण्टां प्रपूजयेत्’ कहकर पहले चेक कर लेते हैं कि ये बजने वाली घंटी है न। घण्टानाद करके पहले वातावरण पवित्र हो जाता है फिर हम उसका पूजन करते हैं।

गरुड़जी वेदस्वरूप भी माने गए हैं।  कहते हैं कि जब गरुड़जी उड़ते हैं तो उनके पंखों से सामवेद की ऋचाएँ निकलती हैं।  उसके ऊपर सवार होकर भगवान् नारायण हमारे पास आते हैं।  यानि वो सत्य जो वेदसम्मत है, वेद उसीको तुम्हारे पास ले आता है उड़ते हुए।  

तुमने जो मान लिया है वो सत्य नहीं है, जो सत्य है वो तुमको मानना है।  हमने मान लिया है वो धर्म नहीं है, जो धर्म है उसको मानना है।  ये बड़ी गड़बड़ हो जाती है।  धर्म के द्वारा हम परिचालित हैं कि हम धर्म को अपनी इच्छानुसार चलाना चाहते हैं ?  ये धर्म को अपनी इच्छानुसार मोड़ने की चेष्टा और इच्छा, ये दुर्योधनीवृत्ति है।

कथा की दृष्टि से महाभारत में देखा जाय तो कौरवपक्ष में धर्म विदुर के रूप में है और पांडव पक्ष में धर्म युधिष्ठिर के रूप में है। दोनों सज्जन हैं और दोनों के बीच में परस्पर कितना प्रेम है।

दुर्योधन ये चाहता है कि विदुर को हम रोटी खिला रहे हैं तो विदुर हमारे अनुकूल बात करे। हम जैसा कहते हैं वैसा करे। इसलिए विदुर जब कोई ऐसी बात करते हैं हित की तो दुर्योधन को अच्छी नहीं लगती।  जब श्रीकृष्ण आये थे विष्टि के लिए तो विदुर ने धृतराष्ट्र को समझाया और ये दुर्योधन को अच्छा नहीं लगा तो उसने विदुरजी का अपमान किया, “इस दासीपुत्र को यहाँ किसने बुलाया ? खाता है हमारा और भला चाहता है पांडवों का“।

इसका तातपर्य है की धर्म के लिए हमने थोड़ा पैसा खर्च कर लिया तो हम ये अपेक्षा करने लगते हैं कि अब धर्म हमारे अनुकूल चले।  ना ! धर्म जो कहता है वो हमें करना है। मैं जो कहता हूँ वही धर्म है ये दुर्योधनीवृत्ति है। ये जड़ता, ये स्वार्थ, ये अभिमान, दुर्योधनीवृत्ति है! और फिर दुर्योधन विदुर को धक्का मारकर निकाल देने की बात करता है।

देखो धर्म की ये दशा है कौरवपक्ष में।  जबकि पाण्डवों में युधिष्ठिर जो कहते हैं अन्य भाई मर्यादापूर्वक करते हैं, चाहे पसंद न हो।  युधिष्ठिर की बातों से अन्य भाई कभी-कभी सहमत नहीं होते। जैसे की द्रौपदी को क्या जुए में रखना ये कोई बात थी क्या ? तो स्वाभाविक है सबका गुस्सा। लेकिन धर्म का वहाँ इतना आदर है। इस तरह से करने से हुआ ये कि अंत में सत्यस्वरूप श्रीकृष्ण उनके संग हो लिए | क्योंकि धर्म के द्वारा पाण्डव परिचालित होते थे तो भगवान् उनके संग रहे और अंत में पांडव विजयी बने।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Fill out this field
Fill out this field
Please enter a valid email address.
You need to agree with the terms to proceed

Menu