Is God Punishing us in the form of Coronavirus? क्या भगवान हमे कोरोना वायरस के रूप में दंडित कर रहे है?

Is God punishing all human beings in the form of the Coronavirus Pandemic?

Let us come out of this spiritually and reflect. The earth has faced pandemics every now and again. Check the history. 100 years ago, there was a pandemic. Corona is not a new virus. This time it is known as COVID and is novel, COVID-19, but Corona is not new. It was there before but it keeps changing its form. This time is of the virus. We will have to face viruses like these now and again. 100 years ago, we faced the Spanish flu in which millions of people died. Prior to those 100 years ago, there was a pandemic. India has also faced diseases such as plague and Marek’s disease.

Now let us discuss this spiritually. Where there is indulgence in the material world, diseases will exist. Conversely, without indulgence life will not continue.  My five senses require consumption; the eyes need form, ears require sound, skin needs touch, tongue requires taste, nose needs smell. God has given us these senses to consume and he has made the objects of consumption available. However, with this, discrimination between right and wrong (vivek) is necessary.

I see, but what should I see and not see? I listen, my ears consume words, but what should they and should they not hear? I eat, but what is eatable and not eatable, drinkable, and not drinkable? Discrimination for this, must be present in a human. Dharma and satsang provide this discrimination.

However, when we ignore Dharma, we mock what is being said by sages and saints/spiritual leaders, we consume material objects without this discrimination, consider true progress in life as growth of wealth only, and for this, we lose discrimination and exploit the earth, then definitely, even nature becomes angry.

Let us contemplate on the nature of our bodies. The vāta energy (subtle energy associated with movement) is primary in some. If they continue to eat food that increases flatulence, advised to be abstained from by the doctor, then what will happen? The vāta energy will flare and one will acquire diseases related to vāta. The body says no but our undisciplined mind wants to consume what is not right for us.

When pitta (the energy of digestion and metabolism) flares up, vāta flares, kapha (the energy of lubrication) flares, due to foods we consume, then the body’s nature will obviously take revenge. It will cause suffering from disease and may even lead to death. One may need to go to hospital, money may be wasted, everyone in the household may need to face trouble to resolve this. This punishment will not only need to be faced by the individual but also the family. Why? Lack of control and discrimination.

That which applies to the body also applies in the world. The body is also nature and the world is a vast nature. So, when we will not keep discrimination in indulgence in the material world, then naturally, time will come when nature will get angry. Then famine, drought, sometimes earthquakes, tsunami, these will have to be suffered.

For a long time, I have been saying one thing, that in the 21st century,

if there is a mantra that is necessary, it is SLOW DOWN.

Today, see this situation has arrived. Instead of slow down, we are in a lock down. We were moving so fast and running blindly for material happiness. On the roads, who will see speed breakers to slow fast moving cars.  This is what the current time is like. It is a speed breaker. There is a current need to slow down.

I say once again that we need to change the definition of progress and development. Move towards per capita happiness instead of per capita income. Only money cannot give happiness to people. We have discussed in Katha many times that this will increase comfort but not happiness. Then, one will be comfortably miserable.

Your own life contains bliss and this bliss is unbelievably cheap. This is what is being said constantly in satsang and Katha. I remember Pragyachakshu Swami Sharananandji Maharaj who used to say that

the needs of anyone cannot remain incomplete and desires of all cannot be fulfilled.

Mother nature has organised such that the needs of life will not remain incomplete.  The earth is necessary to live life then the earth carries you, gives you food. You need air to fill your lungs then nature has provided this. We have polluted the air in the name of industrialisation and development. Life requires water then God has showered rain. Out of foolishness we have polluted this water. This polluted water is giving rise to many diseases!

So, time and time again, such situations arise where we must slow down. Speed breakers come. This is necessary for our safety. Slow down at the time. Let us then move on with vivek (discrimination of right and wrong).

Nature is our mother. She is filled with affection. However, when children do not listen then this mother has to get angry, slap the child gently sometimes, that is when we listen. her children. Our mother is compassionate. She will shower her grace upon us.
क्या कोरोना महामारी के रूप में भगवान सारी मानव जातिको दंडित कर रहे हैं ?

हम जरा धार्मिक भावनासे बाहर आकर के सोचें शुरुआत में पहले | पृथ्वी पर समय समय पर महामारी आती रही है । यह कोरोना कोई नया वायरस तो है नहीं । यह वाला कोविद है, कोविद-१९ | कुछ सो साल पहले स्पेनिश फ्लू था, उसमें भी करोड़ों लोग मरे थे | उसके सो साल पहले भी प्लेग और मरकी जैसे रोगोंका भी भारत ने सामना किया हि है ।

अब धार्मिक और आध्यात्मिक चर्चा करें । जहाँ भोग है वहाँ रोग है ‌। बिना भोग के भी आपका जीवन चलेगा नहीं । मैं खाऊँगा नहीं तो जिऊँगा कैसे? मेरी पंच इंद्रियों को पंच विषयों का भोग चाहिए | आंखोंको रुप, कानको शब्द, त्वचा को स्पर्श ,जिह्वाको रस और नासिकाको गंध चाहिए |

भोगो को भोगने के लिए इन्द्रियाँ भी हमको मिली हुई है और भोग भी उपलब्ध हैं, लेकिन उसके साथ विवेक होना चाहिए |

मैं देखूँ लेकिन क्या देखूँ क्या नहीं देखूँ। मैं सुनु लेकिन क्या सुने क्या नहीं सुने। मैं खाऊँ लेकिन क्या खाए ? क्या नहीं खाए ? क्या पीए ? क्या ना पीए? उसका विवेक मनुष्यके पास होना चाहिए |

वह विवेक धर्म देता है और सत्संग के द्वारा प्राप्त होता है। लेकिन हम जब धर्मकी उपेक्षा करके जब हम साधु-संतों की वाणीका उपहास करने लगते हैं, विवेक हीन होकर के हम भोगों की और जाएँगे, केवल आर्थिक विकासको ही विकासका नाम देंगे और उसके लिए विवेक छोड़कर के हम प्रकृतिका शोषण करने पर उतारू हो जाएँगे, तो निश्चितरूप से प्रकृति भी प्रकूपित होती है |

हमारे शरीरकी प्रकृति ही ऐसी है | किसी की वात प्रकृति है और वह वायु को बढ़ानेवाली  चीज खाता रहेगा, वैद्यजी ने मना किया है, फिर भी खाता रहेगा तो क्या होगा? वात प्रकूपित होगा और वातजन्य जितने भी रोग है उसका वो भोग बनेगा। शरीर स्वयं ना कहता है लेकिन हमारा अनियंत्रित मन उसको खाना है, उसको पीना है। तो फिर जब पित् प्रकूपित हो जाता है, वात प्रकूपित  हो जाता है, कप प्रकूपित हो जाता है और ऐसे चीजोंका हम सेवन करेंगे, तो शरीरकी प्रकृति है, वह तो बदला लेगी ही | रोगका भोग बनाएगी और हो सकता है मरना भी पड़े। अस्पतालमें जाना पड़े, पैसे को पानी की तरह बहाना पड़े। घर के सब लोगोंको दु:खी भी होना पड़े इसको संभालने के लिए | यह सारी सजा केवल उसको ही नहीं पूरे परिवार वालोंको भी भुगतनी पड़ता है ।

जो शरीरके साथ लागू होता है वो संसार के साथ भी लागू होता है। यह शारीर प्रकृति है और यह सृष्टि भी विशाल प्रकृति है। जब भोगमें हम विवेक नहीं रखेंगे तो स्वाभाविक रुप से एक समय ऐसा आएगा जब प्रकृति प्रकूपित होगी, तो कभी अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकंप, सुनामी यह सब आपदाएँ भोगना पड़ता है।

बहुत समय से एक बात मैं कह रहा हूँ |

२१सदी का यदि कोई मंत्र होगा और जरुरी है तो वह स्लो डाउन |

आज देखो स्थिति आ गई । स्लो डाउन की जगह लोक डाउन आ गया है। इतने फास्ट जा रहे थे हम भौतिक-सुखकी प्रति इतनी अंधी दौड़ थी हमारी | फिर एकदम फास्ट गाड़ी जाती है और कहीं जिस तरह से हम स्पीडब्रेकर वहाँ लगाते हैं ऐसे ही कुछ बात हुई है | ये स्पीड ब्रेकर है |

फिर से कहता हूँ विकासकी व्याख्या बदलने की जरूरत है। पर केपीटा इनकम को हटा करके पर केपीटा हैप्पीनेस की और जाओ। केवल रुपया-पैसा आदमी को सुख नहीं दे सकता । कहीं बार कथाओं में हम लोगों ने चर्चा करी है कि उससे सुविधाएँ बढ़ सकती है, सुख नहीं बढ़ सकता | पहले झोपड़े में बैठकर रोते थे अब बड़ी कोठीयो में बैठकर रोएँगे। लेकिन दु:ख तो वैसा का वैसा रहा अब थोड़ा कंफर्टेबल ही दु:खी हो रहे हो क्योंकि पैसा हो गया | मुख्य बात है, पर केपिटा हैप्पीनेस |

आपके अपने जीवनमें आनंद है और यह बहुत सस्ता है | यही बात तो लगातार सत्संग-कथा में सुनाई जा रही है | और एक बार बहुत समय से कह रहा हूँ कि यह महापुरुषों का ही प्रसाद है। प्रज्ञा चक्षु स्वामी श्रीशरणानंद जी महाराज को स्मरण करके कह रहा हूँ

आवश्यकता किसी की अधूरी नहीं रहती और इच्छाएँ सबकी पूरी नहीं होती।

माता प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था करी है कि तुम्हारी जीवनकी जो आवश्यकता है वह अधूरी नहीं रहेगी । जीवन जीने के लिए जरुरी है धरती तो धरती तुम्हें धारण करती है, तुम्हें अन्न देती है, तुम्हें फेफड़ों में भरने के लिए प्राण वायु प्रदान करती है | हमने उस वायु को उद्योगीकरण और विकास के नाम पर प्रदूषित किया है। जीवनके लिए आवश्यक है जल, तो ऊपरवाले ने जल बरसाया | हम लोगोंने अपनी बेवकूफी के चलते उस जलको प्रदूषित किया है और प्रदूषित जलके चलते अधिकांश रोग उत्पन्न होते हैं।

स्पीड ब्रेकर सताते रहते हैं वह हमारी ही सुरक्षा के लिए जरुरी है। तो वहाँ थोड़ा स्लो डाउन होना चाहिए | हम धीरे से आगे बढे।

प्रकृति माता है, बहुत वात्सल्य मयी है । लेकिन बच्चे जब नहीं मानते, नहीं सुनते, तो कभी उसी माँ को गुस्सा करना पड़ता है। बच्चों को कभी-कभी आँख भी दिखाना पडता है। कभी हल्की सी एक थप्पड़ भी देना पड़ता है तब मानते हैं हम । आखिरमें हम बच्चे हैं उनके निश्चितरूप से माँ कृपालु है, हम सब पर कृपा ही करेंगी ||

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