Is Śrāddha Sanskār (rituals for deceased) necessary? श्राद्ध संस्कार जरुरी है ये आजकल के लोगों को कैसे समझाएँ ?

Is Śrāddha Sanskār (rituals for deceased) necessary? How do I explain this to my compatriots?

Whether or not others understand, what is important is that we understand and accept the proof of scriptures as truth that guides our actions. Our Hindu culture believes in the importance of.

Not only is the subtle world bigger than the gross physical world, but also, it is more powerful than the gross physical śrāddha world. At times people may have a large and strong physique but they will remain fearful if their minds are weak. Conversely, we also see people with small and weak physique but their mind is strong and thus no one can dare them. The mind is more powerful.

For a few days after death, the spirit remains attached to the body. The spirit continues to roam around the body. Hence, we cremate the body as soon as possible. For example, one may be attached to one’s house. One day, if the house burns down, then after some time, one will let go this attachment. Thus, if there is no body, then there will be no attachment to something that does not exist anymore.

After nine days of impurity, the rituals of śrāddha are performed after which the soul continues its onward journey.  All this is written in our scriptures. Our Rishis did not have any self-interest in the guidance they gave except for our well-being. The scriptures are evidence of what has been guided in Dharma and spirituality. The rituals of śrāddha must be performed as per their guidance by the followers of Sanātan Dharma.

The rituals of śrāddha  must be performed with faith. Thereafter, in the period of śrāddha according to our Hindu calendar, virtuous actions should be performed in honour of our ancestors. However, Śrimad Bhāgavat and our scriptures clarify that these do not need to be elaborated.

We invite our daughters, son-in-law, aunts, nieces and other family members and feed them. This is fine. It is an excuse to gather the whole family in times where families are breaking apart. A human being needs another human being the most in life. Otherwise, difficult times will break one. Maintain good relationships and support one another.

However, for śrāddha rituals, it is sufficient to feed just one supremely knowledgeable and virtuous person. Even knowledgeable and wise people need food to survive their body. A hermit begs for alms also. Thus, feeding one virtuous and pure person in memory of our ancestors is sufficient.

Śrāddha rituals are also a means to express our gratification towards our ancestors. Is it humanitarian to forget those parents after their death, who gave us birth, nurtured us, and helped us stand on our feet?

The other questions that often rises is: what is the evidence that our ancestors benefit from these virtuous causes and śrāddha rituals? This is the perception of an atheist. Regardless, if we see this from the perspective of humanity, the performing charitable actions such as building a school, hospital, medicine clinic, or helping others in memory of your ancestors is a type of śrāddha.

In summary, perform the rituals of śrāddha with faith as guided by our scriptures without much elaboration.

श्राद्ध संस्कार जरुरी है ये आजकल के लोगों को कैसे समझाएँ

हमारी परम्परा में श्राद्ध का महत्त्व है। स्थूल सृष्टि से सूक्ष्म सृष्टि न केवल बहोत बड़ी है अपितु विशेष सामर्थ्य वाली है। ये एक नियम ही है कि स्थूल से ज्यादा शक्ति सूक्ष्म में होती है। कभी कभी शरीर स्थूल (बड़ा या मोटा) होता है लेकिन सूक्ष्म यानि मन कमजोर हो तो हमेशा डरता ही रहेगा। कई लोगों का स्थूल शरीर दुबला-पतला होता है पर सूक्ष्म मन इतना मजबूत होता है कि अच्छे-अच्छे की छुट्टी कर दे। मन की शक्ति ज्यादा है।

मृत्यु के बाद अमुक दिन पर्यन्त उस चेतना की आसक्ति अपने शरीर के प्रति रहती है। इसीलिए हम उस शरीर को जल्द से जल्द जला देते हैं। जैसे हमारे घर के प्रति हम आसक्त होते हैं और कभी वो घर ही जल जाए तो कुछ समय में वो आसक्ति भी छूटती है। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। तो कुछ समय तक वो चेतना वहीं भटकती रहती है। नौ दिन की अशुद्धि के बाद दसवें दिन श्राद्ध आदि क्रिया सम्पन्न की जाती है और वो जीवात्मा आगे की यात्रा के लिए प्रस्थान करती है। ऐसा शास्त्रों में लिखा गया है।

ऋषियों का ऐसा कोई स्वार्थ नहीं था या उन्हें कोई अपनी दुकान नहीं चलानी थी। उन्होंने जो कुछ कहा है हमारे कल्याण के लिए कहा है और धर्म एवं अध्यात्म की बात में शास्त्र ही प्रमाण है। शब्द प्रमाण को श्रेष्ठ माना गया है। तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।तदनुसार श्राद्धक्रिया सनातन धर्मावलंबियों में होती है और करनी चाहिए।

श्रद्धापूर्वक श्राद्ध संपन्न किया जाए। उसके बाद भी जब श्राद्धपक्ष आए तब उनके पितरों के निमित्त सत्कर्म होना चाहिए। लेकिन विस्तापूर्वक नहीं। शास्त्रों में एवं श्रीमद्भागवत में भी स्पष्ट कहा है कि श्राद्ध में अधिक की आवश्यकता नहीं है। हम अपने बेटीबहन, जवांईयों को, भांजों को बुलाते हैं, जिमाते हैं। ठीक है जिमाओ। एक बहाना है परिवार को एकत्र करने का, अच्छा भी है।

आजकल परिवार टूटते जा रहे हैं। ये ठीक नहीं है। आदमी को आदमी की सबसे ज्यादा जरुरत होती है। नहीं तो संकट के समय में लोग  टूट जाते हैं। कोई न कोई सहारा होना चाहिए। अत एव सबसे अच्छे सम्बन्ध बना के रहो। हम एकदूसरे का सहारा बन सकते हैं। हमें एकदूसरे की जरुरत पड़ती है।

इसलिए इस अवसर में हम सबको बुलाते हैं। सबको बुलाओ, इकठ्ठा करो, जिमाओ ठीक है। लेकिन श्राद्ध के लिए परमज्ञानी पुरुष एक ही काफी है। उसको जिमा दो। ज्ञानी को भी शरीर को टिकाने के लिए अन्न की जरूरत पड़ती है। सन्यासी भी भिक्षा मांगते हैं। एक पवित्र ब्राह्मण मिले तो दो की आवश्यकता नहीं है।  श्राद्धे कुर्यान्न विस्तरम् ये भागवत में स्पष्ट है। तो श्राद्ध में अधिक विस्तार की आवश्यकता नहीं है। सुयोग्य, पवित्र व्यक्ति को हम पूर्वजों का स्मरण करते हुए खिलाएँ।

तो भई ये अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन भी है। जिन माँबाप ने हमें जन्म दिया, पालपोस के योग्य बनाया, हम जहाँ हैं उनके आशीर्वाद से हैं उन्हें मृत्यु के तुरंत बाद हम भूल जाएं, क्या ये मानवता की दृष्टि से भी उचित हैबाकि बात रही कि कौन देखने वाला है कि मरने के बाद उनको पहुँचता है कि नहीं। ये तो नास्तिकदर्शन चार्वाक जैसी बात हो गई।भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः लेकिन मानवता की दृष्टि से भी देखें, सोचें तो आप अपने पूर्वजों के निमित्त कुछ अच्छा काम करो, स्कूल बनवाओ, दवाखाना खुलवाओ, अन्नक्षेत्र में कुछ सेवा करो ये सब भी एक प्रकार से श्राद्ध ही है।

बाकी श्राद्धविधि वाली बात है तो उसको अतिविस्तार न करके शास्त्रआज्ञापूर्वक, श्रद्धापूर्वक करना चाहिए।

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