श्रीमद्भागवत के बारहों स्कंधों में महाभागवतश्रीनारदजी

नारद जयन्ती  ‘भागवतस्य इदं भागवतम्

श्रीमद्भागवत महापुराण क्या है?

१) ‘भगवता प्रोक्तं इस व्याख्या के अनुसार भगवान श्रीहरि के द्वारा जो कहा गया है एवं
२) ‘भगवतः अयम्’ इस अर्थ में जो भगवद् स्वरूप है वह भागवत है ।
३) विशेष अर्थ में यह भी शास्त्रों में कहा गया है की ‘भागवतानां इदम्’ अर्थात् भगवान श्रीहरि केप्यारे भक्तों का चरित्र जिसमें कहा गया है उस दिव्य ग्रंथ का नाम श्रीमद्भागवत महापुराण है।

भक्त चरित्र के रस से आप्लावित

जिस ग्रंथ में सर्वत्र भगवान श्रीहरि के चरित्र का निरूपण किया गया है वह ‘भागवत’ है किंतु आजके इस विशेष दिवस पर श्रीमद् भागवत की एक व्याख्या ऐसी भी की जा सकती है कि ‘भागवतस्यइदं भागवतम्’ अर्थात् जिस तरह सर्वत्र भगवान श्रीहरि की कथाओं का विस्तार-रस भागवत में हैउसी तरह भगवान के एक अति प्रिय भक्त महाभागवत श्रीनारदजी का चरित्र भी जिस ग्रंथ मेंसर्वत्र व्याप्त है उस ग्रंथ को हम भागवत कह सकते हैं ।

भक्ति मार्ग आचार्य देवर्षि नारद

पूज्य सद्गुरुदेव भगवान पूज्य भाईश्री के कथनानुसार श्रीमद्भागवत भक्ति संहिता है और श्रीमद्भागवत रूपी फल का रस भक्ति ही है।

‘शरीर की क्रियायें, मन की भावनायें और मति के विचार..यह सब प्रभु से संबंधित हो | मन कीभावनाओं को प्रभु में लगाने का नाम भक्ति मार्ग है। इस विधा के आचार्य देवर्षि नारद है। भगवान् की भक्ति ही सर्वोपरि है। विद्वान् भी जबकिंकर्तव्यविमूढ़ होता है, तब कोई भक्त ही उसकामार्गदर्शन करता है| लोक हित के लिये रागी वेदव्यास का भी मार्गदर्शन करने वाले भक्तिमार्गके आचार्य अनुरागीदेवर्षि नारद जी हैं| भक्ति ही समाधान है। भगवान के मन के अवतार, नारद जयंति की बधाई।’
-पूज्य भाईश्री

माहात्म्य

हमारी प्राचीन प्रणाली अनुसार यदि भागवत का प्रारंभ हम माहात्म्य पठन से करें तो उसमाहात्म्य में भी नारदजी की महिमा प्रतिपादित है ।
पद्मपुराण अंतर्गत माहात्म्य में सनत् कुमार एवं नारदजी का संवाद ही मूल रूप से दिया गया है।
‘संत – जगतहित व्यग्रचित्त सर्वदा’ । जो व्यक्ति समाज की चिंता में आंतरिक रूप से सतत् व्यग्र रहेवह संत है ।’ <!–more–> 

चाहे पापी का दुःख हो या स्वयं भक्ति महाराणी का दु:ख हो-  इस कथा श्रवण से किस-किस काउद्धार शीघ्र हो सकता है ऐसे प्रश्नों को उद्घाटित करने वाले श्रीनारदजी हैं।

प्रभु के साक्षात् मन के स्वरूप,  नारदजी के चरित्र में परोपकार की वृत्ति एवं करुणापूर्ण व्यग्रता काहम दर्शन करते हैं । इसलिए पद्मपुराण अंतर्गत श्रीमद्भागवत के माहात्म्य में भागवत (भक्त) श्रीनारद जी का माहात्म्य भी प्रकट होता है।

भक्ति का एक अर्थ है भय और भार (चिंता) को छोड़कर, अपने भाव द्वारा भगवान (आनन्द) सेभर जाना। अभयत्व और निर्भार जीवन भगवत्शरणागति का प्रसाद है।
-पूज्य भाईश्री

जयति जगति मायां…….. (१-८०)

विशेष रूप से जैसे श्रीमद्भागवत महापुराण के बारहों स्कंधों में भगवान श्रीहरि की लीला काविस्तार है उसी तरह श्रीमद्भागवत के बारहों स्कंधों में श्री नारद जी के दिव्य चरित्र का भीनिरूपण किया गया है।

1. प्रथम स्कंध में

तृतीयमृषीसर्गं  च देवर्षित्वमुपेत्य सः।
तन्त्रं सात्वतमाचष्ट नैष्कर्म्यं कर्मणां यतः।।
 
(१.३.८)

इस श्लोक में श्रीनारदजी को भगवान श्रीहरि के तृतीय अवतार के रूप में निरूपित किया गया है एवंपांचवे तथा छठे अध्याय में दिया गया नारदजी का पूर्व चरित्र मानो भागवतरूपी ग्रंथ श्रीनारदजीके प्राकट्य कथा के रूप में निरूपित हो ऐसा प्रतीत होता है।

2. द्वितीय स्कंध में 

परम पिता ब्रह्मा जी के साथ श्रीनारदजी का संवाद मानो बालकरूपी श्रीनारदजी की ज्ञान प्राप्तिका समय हो इस तरह-

अहमेवा समेवाग्रे……. (२.९.३३,३३,३४,३५)

इस चतु:श्लोकी भागवत के रुप में श्रीनारदजी को ज्ञान प्राप्त हुआ ।

3. तृतीय स्कंध में 

परम पिता ब्रह्माजी के अपने पुत्र श्रीनारदजी के प्रति अद्वितीय प्रेम का दर्शन होता है। क्योंकि जिसतरह माता-पिता को अपने बच्चे प्यारे होते हैं तो वह उन बच्चों को अपनी गोद में लेकर दुलार करतेहैं वह वैसे ही

उत्सङ्गान्नारदो जज्ञे…..(३.१२.२३) 

श्रीब्रह्माजी ने अपने प्रिय पुत्र श्रीनारदजी को अपनी गोद में से ही उत्पन्न किया है इसलिए ब्रह्माजीका भी अन्य प्रजापतिओं से श्रीनारदजी पर प्रेमाधिक्य प्रगट होता है।

4. चतुर्थ स्कंध में 

ध्रुव चरित्र हो, पुरंजन उपाख्यान हो, प्रचेताओं को उपदेश हो एवं

5. पञ्चम स्कंधमें 

राजा प्रियव्रत को उपदेश हो या फिर भारतवर्ष में भगवान नर-नारायण की पूजा हो, सब माध्यमसे श्रीनारदजी के चरित्र का विस्तार है।

6.छ्ठे स्कंध में 

दक्ष के पुत्र हर्षाश्व और शबलाश्च आदि को उपदेश हो या राजा चित्रकेतु को वैराग्यप्रद बोध हो याभगवत्प्राप्ति के लिए सत्संग की महिमा; श्रीनारदजी ने यह सब प्रकाशित किया है।

7.सप्तम स्कंध में 

वक्ता के रूप में ही श्रीनारदजी हैं । पूज्य भाईश्री कहते हैं कि नारदजी के दो वृद्ध शिष्य हैं व्यासजी, और वाल्मीकिजी एवं उनके दो बालक शिष्य हुए; पहले ध्रुवजी दूसरे प्रह्लादजी ।
सप्तम स्कंध की कथा में प्रह्लादजी का चरित्र एवं धर्मराज राजा युधिष्ठिर को धर्मपंचाध्यायी केद्वारा उपदेश हो यह संपूर्ण कथा उनके भक्ति मार्ग के आचार्य पद को शोभायमान करती है।

8.अष्टम स्कंध में 

देवासुर संग्राम के अवसर में श्रीनारदजी ने ही भगवान श्रीहरि के दूत बनकर देवताओं को युद्ध सेनिवृत्त किया था ।

9.नवम स्कंध में 

भी राजा हरिश्चंद्र की कथा के द्वारा हमें श्रीनारदजी के दर्शन प्राप्त होते हैं।

10.दशम स्कंध में

 भगवान श्रीकृष्ण की गर्भ स्तुति से लेकर प्रभु की प्रत्येक की लीला में श्रीनारदजी का भगवद्अनुकूल एवं सहयोगी चरित्र पद-पद पर समाहित है ।

11. एकादश स्कंध में 

 श्रीनारदजी संपूर्ण संसार के परमहित समान भागवतधर्म का उपदेश नवयोगेश्वर और राजा निमिके संवाद के माध्यम से करते हैं ।

12. द्वादश स्कंध में

श्रीनारद पुराण के उल्लेख के द्वारा शब्द बल स्वरूप में श्रीनारदजी का दर्शन प्राप्त होता है तथाश्रीसूतजी के अंतिम मंगलाचरण रूप श्लोक

कस्मै येन विभासितो….(१२-१३-१९) 

में श्रीनारदजी को भगवद् स्वरूप स्वीकार कर प्रणामकिया गया है।

इस तरह भगवान श्रीहरि के चरित्रों के साथ संपूर्ण भागवत में सर्वत्र परम भागवत भक्ति मार्ग केआचार्य देवर्षि श्रीनारदजी का चरित्र निरूपित किया गया है।

अतः ‘भागवतस्य श्रीनारदस्य चरित्रमिदं भागवतम्  अर्थात् भागवत श्रीनारदजी का दिव्य चरित्रजिस ग्रंथ में निरूपित है वह शास्त्र श्रीमद्भागवत है।

श्रीनारद जयंती के उपलक्ष्य में इस भाव के साथ श्रीनारदजी के श्री चरणों में प्रणाम।

अहो देवर्षिर्धन्योऽयं यत्कीर्तिं शार्ङ्गधन्वनः।

गायन्माद्यन्निदं तन्त्र्या रमयत्यातुरं जगत्।।(१-६-३९)

परम सत्ता से संवाद करते नारदजी की महिमा सुनिये पूज्य भाईश्री रमेशभाई ओझा से- 

संकलन – ऋषि हर्षितभाई शुक्ल
संपादन:- ऋषि धवलभाई जोशी

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